जालंधर:-दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान एवं श्री कृष्ण मुरारी मंदिर, गोपाल नगर, जालंधर की ओर से तीन दिवसीय आयोजित कार्यक्रम "या देवी सर्वभूतेषु" के दूसरे दिन में श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या कथा व्यास साध्वी सुश्री मेधावी भारती जी ने महिषासुर मर्दन प्रसंग का वाचन किया। साध्वी जी ने बताया महिषासुर ने भीषण तप करके ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया। तब ब्रह्मा जी ने प्रकट होकर महिषासुर को वरदान मांगने को कहा। महिषासुर ने ब्रह्मा जी से वरदान मांगा कि मेरी मृत्यु किसी स्त्री के हाथ से हो, ऐसा वरदान दीजिए। ब्रह्मा जी ने तथास्तु कहा और अंतर्धान हो गए। वरदान प्राप्त कर स्वयं को भगवान जानकर महिषासुर ने चारों दिशाओं में आतंक का संचार कर दिया। तब उस आताताई के अत्याचारों से त्रस्त सभी देवों ने अपनी ऊर्जा पुंज समर्पित कर एक विशाल प्रकाश पुंज को प्रकट किया। उस पुंज से 18 भुजाओं से संपन्न स्वयं आदिशक्ति जगदंबिका ने आकार लिया।
साध्वी जी ने कहा कि आगे कथा बताती है कि कामासक्त महिषासुर जगदंबिका को प्राप्त करने के लिए स्वयं आ गया। जब जगदंबिका ने उसका प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया तब महिषासुर ने जगदंबिका के साथ युद्ध करने की ठान ली। महिषासुर के आतंक को समाप्त करने के लिए मां ने महिषासुर से युद्ध किया। काफी समय तक युद्ध चलने के बाद अंतः जगदंबिका मां ने अपने सुदर्शन चक्र से महिषासुर का सिर काट दिया।
साध्वी जी ने बताया कि महिषासुर समाज की अज्ञानता का प्रतीक है। ऐसा समाज जो नारी को उसका अधिकृत स्थान एवं सम्मान प्रदान नहीं करता। जगदंबिका अर्थात नारी का वह स्वरूप जिसमें उसका पूर्ण समर्थ जागृत है। इस जगदंबिका स्वरूप में जहां 18 भुजाओं में धारण किए आयुध बाहरी शक्तियों व क्षमताओं के प्रतीक हैं। वही मस्तिष्क पर शोभायमान तृतीय नेत्र आंतरिक शक्ति अर्थात आतम शक्ति का प्रतीक है। बाहरी व आंतरिक शक्ति को प्राप्त कर महिषासुर का वध करने वाली जगदंबिका महिषासुर मर्दिनी कहलाई। आधुनिक शैली में कहे तो महिषासुर मर्दिनी, परिवर्तन प्रतिनिधि की प्रतीक है, जिन्होंने मात्र स्वयं का ही संरक्षण नहीं किया, बल्कि प्रेरणा बनकर समस्त नारी जाति को आत्मिक सशक्तिकरण का मार्ग सुझाया और परिणाम स्वरूप समाज में ऐसी जागृति महिलाएं परिवर्तन प्रतिनिधि बनकर सामने आई, सामाजिक रूढ़ियों व भ्रांतियों को आत्मबल के आधार पर पहले स्वयं उन्होंने पार किया और फिर अग्रणी होकर अन्य महिलाओं को भी इसे पार करवा कर वैदिक युगीन ब्रह्मवादिनी गार्गी ने साधारण महिलाओं को बच्चियों के लिए प्रथम गुरुकुल शुरू किया।
त्रेता में देवी सीता ने अपने पति श्री राम के साथ बनवास धारण कर नारियों के सुकोमल तथा निर्बल होने की अवधारणा का प्रयोग खंडन किया। कलयुग में भक्ति मति मीराबाई ने सामाजिक पटल पर सती प्रथा व घुंघट प्रथा का विरोध किया। रानी लक्ष्मीबाई ने स्त्रियों की सेना तैयार कर अंग्रेजों से लोहा लिया। इन सभी दृष्टांतो में नारी ने असीम आत्मबल तक की यात्रा को तय किया। जो स्वयं के लिए ही नहीं समाज के लिए भी कल्याणकारी सिद्ध हुआ।
कथा को मां भगवती की पावन आरती करके विराम दिया गया। आरती में विशेष रूप में स्वामी सज्जनानन्द जी, साध्वी पल्लवी भारती जी, साध्वी पूनम भारती जी, साध्वी रीता भारती जी, प्रधान बनारसी दास, कमल विहार वेलफेयर सोसाइटी,कैलाश, इंदरजीत सेक्रेटरी, डॉक्टर बी. डी.शर्मा, संजय खन्ना, संगीता, संजीव शर्मा, पंडित दीनदयाल शास्त्री, राकेश महाजन, चमन लाल कोछड़ प्रधान, उमा महेश्वर सचिव, नरेश राजन वासन,भारत भूषण नारंग,सतपाल प्रभाकर, भगवती प्रसाद, सुभाष मल्होत्रा, सुभाष वर्मा, सुभाष तनेजा, नरेंद्र कुमार शर्मा, आदि उपस्थित हुए।